स्वागत

मेरे 'शब्दों के शहर' में आप का हार्दिक स्वागत है। मेरी इस दुनिया में आप को देशप्रेम, गम, ख़ुशी, हास्य, शृंगार, वीररस, आंसु, आक्रोश आदि सब कुछ मिलेगा। हाँ, नहीं मिलेगा तो एक सिर्फ तनाव नहीं मिलेगा। जिंदगी ने मुझे बहुत कुछ दिया है। किस्मत मुज पर बहुत मेहरबान रही है। एसी कोई भावना नहीं जिस से किस्मत ने मुझे मिलाया नहीं। उन्हीं भावनाओं को मैंने शब्दों की माला में पिरोकर यहाँ पेश किया है। मुझे आशा है की मेरे शब्दों द्वारा मैं आप का न सिर्फ मनोरंजन कर सकूँगा बल्कि कुछ पलों के लिए 'कल्पना-लोक' में ले जाऊंगा। आइये आप और मैं साथ साथ चलते हैं शब्दों के फूलों से सजी कल्पनाओं की रंगीन दुनिया में....

Thursday 7 February 2013

कबूतर

उड़ के यूँ छत से कबूतर मेरे सब जाते हैं
जैसे इस मुल्क से मजदूर अरब जाते हैं
मुनव्वर राणा

मुनव्वर राणा सशक्त शायर है। मत्ले  के बारे में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। मत्ला खुद बोल रहा है।  सामान्यतया इंसान की खूबियाँ या खामियां बताने के लिए पशु पक्षियों  का सहारा लिया जाता है। जैसे की नजर गिद्ध जैसी है, वफ़ादारी कुत्ते जैसी है, कबूतर सा भोला है, लोमड़ी सा चालाक है। ऐसे कई उदहारण मिल जायेंगे। इस शेर में शायर ने कबूतरों की मजदूरों से तुलना की है। मजदूरों के अरब गमन की घटना को कबूतरों की उड़ने के साथ तुलना की है।

हमने बाज़ार में देखे हैं घरेलू चहेरे
मुफ़लिसी तुज से बड़े लोग भी दब जाते हैं
गरीबी अच्छे अच्छों को बिकने पर मजबूर कर देती है। शायर ने घरेलू शब्द द्वारा उस वर्ग की और संकेत किया है। जिन का बाज़ार से ज्यादा लेना देना नहीं है। गरीबी इंसान को तोड़ देती है। इंसान वो सबकुछ करने के लिए तैयार हो जाता है। जिस के लिए उस की अंतरात्मा कभी अनुमति नहीं देती।

कौन हँसते हुए हिजरत पे हुआ है राजी
लोग आसानी से घर छोड़ के कब जाते हैं
कोई व्यक्ति आसानी से हिजरत के लिए तैयार नहीं होता। इंसान को जहाँ दाना-पानी मिलता है। वह स्थान वो छोड़ना नहीं चाहता। बहुत बड़ा या महत्पूर्ण कारण हो तो ही व्यक्ति हिजरत के लिए तैयार होता है। जैसे कि 1947 में करोड़ों लोगों ने हिजरत की थी। बल्कि कहना चाहिए करनी पड़ी थी।

लोग मशकूक निगाहों से हमें देखते हैं
रात को देर से घर लौट के जब आते हैं
इस शेर का अर्थ जितना सरल लग रहा है। उतना है नहीं ।इंसान जब चाहें अपने घर आयें। उसे शंकास्पद नज़रों से देखने की क्या जरूरत है?
मगर मित्रों असामान्य लगनेवाली हर घटना व्यक्ति का ध्यान खींचती है। खींचना भी चाहिए। रोजमर्रा के क्रम से अलग घटनेवाली घटना की और लोगों का ध्यान जाता ही है। जाना भी चाहिए। ऐसी घटना न सिर्फ ध्यान खींचती है। बल्कि शंका के बीज भी बोती है। हम कई बार न्यूज़ चैनलों में देखते हैं।किसी राजनीतिक पक्ष की सभा या बैठक या मीटिंग निश्चित समय पर शुरू न हो तो अटकलों का बाज़ार गर्म हो जाता है। दो देशों की की राजनीतिक मंत्रणाएँ तय वक्त पर शुरू न हो तो शंका कुशंकाएँ होने लगती है। इसी तरह शाम एको एक निश्चित समय पर घर पहुँचानेवाला व्यक्ति घर न पहुंचे तो लोग अपने हिसाब से अंदाजा लगाना शुरू कर देते हैं। बच्चे का स्कूल से घर वापस आने का समय पांच बजे का हो और वो सवा पांच  तक न आये। तो, उस के बाद बीतनेवाला हर पल प्रत्येक व्यक्ति के मन में चिंता पैदा करता है। जैसा की मैंने लिखा रोजमर्रा के घटनाक्रम से अलग घटनेवाली घटना पर लोगों का ध्यान जाता ही है और जाना भी चाहिए। यही नागरिक जागरूकता है।

ता-20-01-2013 के दिन गुजराती वर्तमान-पत्र 'जयहिंद' में मेरी कालम 'अर्ज़ करते हैं' में छपे लेख का अनुवाद
कुमार अहमदाबादी
[गुजराती कालम अभण अमदावादी के नाम से लिखता हूँ]


Tuesday 5 February 2013

पानी में चिंगारी

डराना चाहते हैं वो हमें धमकियां देकर
बड़े नादान है पानी को चिंगारी दिखाते हैं
वीरेंद्र खैर 'अकेला'

क्या पानी में आग लग सकती है?जो व्यक्ति धीर गंभीर व शांत हो।उसे कभी गुस्सा आ सकता है? जो व्यक्ति कूल माइंड हो।सारे कार्य सोच समझकर करता हो।उसे कोई व्यक्ति क्रोधित कर दे।एसा कम ही होता है।चिंगारी पानी में गिरकर ज्वलनशीलता गँवा देती है।ईस बात का आधार लेकर कवि बेहतरीन बात कही है।आदमी को चाहिए वो दिमाग शांत रखे।दिमाग शांत हो तो 'आग' लगानेवालों को सफलता नहीं मिलती।आदमी को हमेशा कूल माईँडेड रहना चाहिए।

ता.13।05।2012 के गुजराती दैनिक 'जयहिंद' में मेरी कॉलम 'अर्ज करते हैँ' में छपे लेख का अंश
कुमार अहमदाबादी
अभण अमदावादी

Thursday 13 December 2012

चटकते लब


 रंज ईतने मिले जमाने से
लब चटकते हैं मुस्कुराने से
सिया सचदेव

सिया सचदेव बेहद भावुक कवयित्री है। ये बात प्रस्तुत ग़ज़ल का मत्ला पढ़ने से स्पष्ट
हो जाती है। उला मिसरे में कवयित्री सूचित करती है कि समाज व दुनिया द्वारा पीड़ा मिली है। वेदना का मन पर हुए असर के बारे में सानी मिसरे में बताया
है। आदमी के घायल मन की असर उस के हास्य में भी दिखती है। कवयित्री ने 'लब चटकते हैं...' वाक्य द्वारा अद्भूत तरीके से मानसिक वेदना को उजागर किया
है। कवयित्री कहती है।जमाने ने ईतने गम दिये है कि खुशी के अवसर पर खुश होने से खुशी फट जाती है।

मत बनाओ ये काँच के रिश्ते
टूट जाएँगे आजमाने से

जीवन में कुछ एसे प्रसंग घटित होते हैं। जो रिश्तों की परीक्षा लेते हैं। उन्हें परखते हैं।
एसे अवसरों पर कांच से नाजुक रिश्ते पल के सौंवे हिस्से में टूट जाते हैं। काँच से रिश्ते टूट जाएँ तो आश्चर्य क्या? रिश्ते विश्वसनीय होने चाहिए। ख्याल कीजिए कवयित्री ये नहीं कहती रिश्ते बनाईये मत। वो ये कहती है काँच जैसे रिश्ते मत बनाईये।

हो ही जाएँगे सब रिहा ईक दिन
छूट जाएँगे कैदखाने से

दार्शनिक शेर
एक दिन सब को मुक्ति मिलनी है। ये जग कैदखाना है। यहाँ से सब की बिदाई तय है। हाँ बिदाई की तारीख या समय किसी को मालूम नहीं। कोई नहीं जानता कौन कब यात्रा पर रवाना हो जाय।

ता.25।11।2012 के दिन गुजराती दैनिक 'जयहिंद' में मेरी कॉलम 'अर्ज करते हैं' में छपे लेख का अनुवाद
कुमार अहमदाबादी/अभण अमदावादी

Monday 3 December 2012

खतरनाक दीमक

उस आदमी का गज़लें कहना कुसूर होगा
दुखती रगों को छूना जिस का शउर होगा
द्विजेन्द्र द्विज

मैंने द्विजेन्द्र द्विज की दो चार गज़लें हीं पढ़ी हैं। मगर उन की ग़ज़लों ने मुझे काफी प्रभावित  किया है। क्यों प्रभावित किया है। प्रस्तुत ग़ज़ल के दो शेर समझा देंगे। प्रस्तुत मत्ले में शायर कहते हैं। जिसे दूसरों के दुःख, दर्द से, पीर से खेलने में मजा आता है। जो किसी की दुखती नस पर उंगली रखकर आनंद लेता है। उस का काव्य कहना या लिखना गुनाह के बराबर है। क्यों? क्यों की काव्य साहित्य है। साहित्य का सृजन समाज के उत्थानके लिए, प्रगति के लिए किया जाता हैं; व्यक्ति को हताशा निराशा की खाई से निकलकर सफलता के पथ पर चलने के लिये प्रेरित करने के उद्देश्य से किया जाता है। व्यक्ति  व समाज में नवचेतना के  की लिए किया जाता है ना की उसे हताश निराश या पस्त करके के लिए। जब की दुखती रग पर हाथ रखने की आदतवाला व्यक्ति क्या करेगा? अपने शब्दों द्वरा किसी की खिल्ली उडाएगा, किसी को आहात करेगा। क्यों की व्यक्ति वही लिखता है। उन्हीं भावों को को पेश करता है। जो उस के स्वभाव में रचे बसे होते हैं। जब की साहित्य का उद्देश्य वो नहीं है।
दीमक लगी हुई हो जिस पेड़ की जड़ों में
कैसे भला फिर उस के पत्तों पर नूर होगा

कवि हमेशा में सागर भरता है। कम शब्दों में बहुत कह देता है। मेरा मन कहता है की मैं इसे बच्चो से जूडे दो विषयों से जोड़कर विश्लेषित करूँ। हालाँकि दोनों विषय आपस में भी जुड़े हैं। बच्चों के पालन पोषण व शिक्षा व्यवस्था दोनों को आज दीमक लग चुकी है।

पहले बच्चो को पालने के विषय को देखते हैं। आज कल माता-पिता  बच्चों का पालन-पोषण किस उद्देश्य से करते हैं? बच्चा बड़ा होकर सच्चा  इमानदार बनाने के या रुपैया पैसा छलकानेवाला 'ATM' बनाने के उद्देश्य से? आज के नब्बे प्रतिशत माता-पिता बच्चे को ATM बनाना चाहते हैं। ना की अच्छा सच्चा व नेक इंसान बनाना चाहते हैं। बच्चे को ATM बनाने की सोच एक वैचारिक दीमक है। जो मापा-पिता रूपी पेड़ की जड़ो को खोखला कर रही है। जब जड़ ही खोखली होगी तो पेड़ फलेगा फूलेगा कहाँ से?

शिक्षा व्यवस्था
शिक्षा व्यवस्था भी बच्चों के पालन-पोषण से जुडी कड़ी है। आज की शिक्षा व्यवस्था महज कागजी प्रमाण-पत्र प्राप्त कर के इंसान के ATM बनने का साधन बनकर रह गई है। शिक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या होने चाहियें? बच्चे का शारीरिक व मानसिक विकास हो, निर्णय शक्ति विकसित हो, संकट के समय स्वस्थता के कार्य करने की क्षमता बढे, परिवार समाज व  के हित में कार्य करने व जीने की भावना बढे। कानून का  करना सीखें। ये सब शिक्षा के मुख्य उद्देश्य होने चाहियें। कथित रूप से आज भी है। मगर .........  वास्तविकता क्या है। सब जानते हैं।

हालांकि  इस में व्यवस्था-तंत्र का भी पूरा हाथ है। जो तंत्र वाहियात विज्ञापनों को प्रसारण की अनुमति देती है। उसे कैसे जिम्मेदार ना मानें? कुछ दिन पहले एक विज्ञापन देखा था। वो ती टी 20-20 का विज्ञापन था। उस में आज का नया कहा जानेवाला रोक़ स्टार कहता है "ये टी 20 क्रिकेट है। ये ना तमीज से खेला जाता है ना तमीज से देखा जाता है। बदतमीजी को बढ़ावा देनेवाले विज्ञापन को प्रसारण की मंजूरी देनेवाले 'एडमिनिस्ट्रेशन" के इरादे क्या हैं? क्या ये भी एक प्रकार को वैचारिक दीमक नहीं जो व्यवस्था-तंत्र को लग गई है?

यहाँ एक छोटी सी घटना का उल्लेख करना चाहता हूँ।
कोई दो सवा दो साल पहले मैं किसी कार्य के सिलसिले में दूरदर्शन केंद्र गया था। तब वहां एक कार्यक्रम की शूटिंग हो रही थी। कार्यक्रम का विषय माताओं और बच्चों के बीच खड़े होनेवाले प्रश्नों का था। मंच पर दो तीन कथित [मैं उन्हें कथित ही कहूँगा] एक्सपर्ट बैठे थे। करीब 15-20 स्त्रियाँ कार्यक्रम में दर्शकों के रूप में हिस्सा ले रही थी। चर्चा के दौरान एक स्त्री ने प्रश्न पूछा " हमारे बच्चों को कौन 'डिश' बहती है? वो क्या चाहता है? उसे क्या अच्छा लगता है?। ये सब हम कैसे जान सकते हैं?

मुझे आश्चर्य हुआ। एक माता को अपने बच्चे के बारे में जानने के लिए एक्सपर्ट का सहारा लेना पड़े। समाज के लिए इस से ज्यादा दयनीय परिस्थिति क्या होगी? ये शायद सब से भयंकरतम दीमक है। जो समाज रूपी वृक्ष को लगी है।

ता-18-11-2012 के दिन गुजराती दैनिक 'जयहिंद' में मेरी कॉलम 'अर्ज़ करते हैं' में छपे मेरे लेख का हिंदी अनुवाद
कुमार अहमदाबादी/ अभण अमदावादी


Friday 12 October 2012

भीड़


खादिमों की है न सरदारों की भीड़
अब कबीले में है बीमारों की भीड़
हुमा कानपुरी
हुमा कानपुरी उर्दू हिंदी के सशक्त शायर है। ग़ज़ल विधा के माहिर हैं। प्रस्तुत ग़ज़ल के मत्ले में शायर फरमाते हैं। आजकल सेवक [स्वयं सेवक] कहीं दिखाई नहीं देते। उसी तरह सेवा कार्यों की अगवाई करनवाले [सरदार] भी दिखाई नहीं देते। सिर्फ 'बीमार' लोग दिखाई देते हैं। सच्चे मन से निस्वार्थ भाव से सेवा कार्य करने में किसी की रूचि नहीं

है। सेवा के बहाने हर कथित सेवक स्वार्थ साधने में लगा है। इसी तरह से निस्वार्थ भाव से सेवा कार्यों की की स्ग्वानी करनेवाले या आर्थिक मदद करनेवाले भी जैसे लुप्त हो गए हैं। कभी कोई हिम्मत करता भी हैं तो स्वार्थी लोग करने नहीं देते। उसें भी अपनी तरह 'कीचड़' में सराबोर करने के लिए तत्पर रहते हैं। या उस के कन्धों पर अपनी बंदूक फोड़ लेते हैं।

यहाँ बीमार शब्द काबिले गौर है। शायर ने अपनी तरफ से बीमारी का खुलासा नहीं किया। पर आज जहाँ देखो जिसे देखो। बीमार नजर आता है।कोई मानसिक तौर नपर तो कोई शारीरिक तौर पर, कोई आर्थिक तो कोई प्रादेशिकता की बीमारी से ग्रसित है। इस शेर मे३ प्रयोग किये गए कबीले शब्द का अर्थ भी विस्तृत है। आज जब पृथ्वी को ग्लोबल विलेज कहा जा रहा है तो कबीले का अर्थ भी वैश्विक है।



सख्तियाँ कुछ कम हुईं तो देखना
बढती जाएगी गुनाहगारों की भीड़
कानून के पालन के जब जब नरमी आती है। गुनाहगारों के हौसले में बढ़ोतरी होती है। कानून का शासन व पालन कभी ढीले नहीं होने चाहिए। सच कहिये क्या आपको नहीं लग रहा कि संसद और ताज होटल पर के हमलों के आरोपियों को सजा देने में देर हो रही है? और इसी देर के कारण पडोशी देश में बैठे हमले करवानेवालों के हौसले बढ़ रहे हैं। अगर शुरू से सख्ती कि जाती तो आज ये नौबत न आती। यहाँ मुझे अहमदाबाद के स्थापक अहमदशाह बादशाह के साथ जुडी कथा याद आरही है। कहा जाता है कि उस के बत्तीस साल के शासन के दौरान सिर्फ दो खून हुए। दोनों कातिल पकडे गए। उस में एक बादशाह का दामाद था। बादशाह ने उसे भी फाँसी कि सजा दी। ये भी कहा जाता है कि उसे फाँसी देने के बाद दो दिन तक लाश उतारी नहीं गई। वो इसलिए कि प्रजाजनों में यह सन्देश जाये कि बादशाह न्यायप्रिय है। गुनाहगार चाहे कोई भी ही उसे बक्शा नहीं जायेगा। दूसरी और आज के दामाद क्या क्या प्राप्त कर सकते हैं? आप जानते हैं।


पांव धरने को जमीं है ही कहाँ?
हर जगह है हम से बंजारों को भीड़
विचरती जाती के लोग बंजारे कहलाते हैं। हिंदी में बंजारा और गुजराती में वणजारा शब्द है। बंजारे एक स्थान पर ज्यादा समय टिककर नहीं रहते। स्थान बदलते रहते हैं। हालाँकि आज कल इस तरह का स्थानांतरण कम होता है।

शायर ने उच्च श्रेणी का विचार पेश किया है। इस जगत, इस पृथ्वी पर आत्मा रूपी बंजारे आते है चले जाते हैं। कोई बंजारा कुछ घटे तो कोई बरसों तक यहाँ निवास करता है। आत्मा रूपी बंजारा एक शरीर से दूसरा शरीर, दूसरे से तीसरा यूँ स्थान परिवर्तन करता रहता है। पृथ्वी पर बंजारों का आवागमन जारी है। बंजारे आते हैं जाते हैं फिर भी भीड़ बढ़ रही है। क्यों? शायद इसलिए कि बंजारों को बसने के लिए मानव देह सब से ज्यादा उपयुक्त लगता है अन्य जीवों का नहीं।


जाइएगा अब  कहाँ बचकर 'हुमा'
हर कदम पर है सितमगरों कि भीड़
कदम कदम पर जब सितमगर मौजूद हो तो कोई कहाँ तक बच सकता है? यूँ समझो कि सौ नहीं हजार नहीं बल्कि लाख में निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यावे जुल्मी हो तो बाकि बचा एक शख्स कहाँ तक बचेगा?
कुमार अहमदाबादी
 
ता.09/09/2012 के दिन गुजराती अख़बार 'जयहिंद' में मेरी कोलम 'अर्ज़ करते हैं' में छपे लेख का हिंदी भावानुवाद
मैं 'अभण अमदावादी' के नाम से कोलम लिखता हूँ
 

Wednesday 5 September 2012

छल की वेदना

हमारे दर्द का कीजे भले न हल बाबू
जता के प्यार मगर कीजीए न छल बाबू
                             भगवानदास जैन
        जैन साहब की ग़ज़लें बहुत मार्मिक व प्रासंगिक होती है। उन की ग़ज़लों में वर्तमान व्यवस्था की कमजोरीयों प्रति आक्रोश और शोषितों के लिए सहानुभूति होते हैँ।
        ये लगाल गाललगा गालगाल गागागा मात्राओँ में लिखा गया अर्थपूर्ण व बेहतरीन शेर है। शेर कहता है कि आप चाहे मेरी समस्या का समाधान न करें; दर्द का निवारण न करें: पर सहानुभूति दर्शाने के बाद छल मत करना। इन्सान को प्रेम न मिले तो उतनी तकलीफ नही होती; जितनी छल से होती है। इन्सान अभाव के शून्य को सह सकता है। छल से ठगे जाने की पीड़ा को सह नहीं सकता। पहले से घायल दिल को ठगना गिरते को लात मारने जैसा हो जाता है।

गुजराती अखबार जयहिन्द में मेरी कॉलम 'अर्ज करते हैं' में ता.25।09।2011 को छपे लेख के अंश का अनुवाद
कुमार अमदावादी
अभण अमदावादी

मनचाहा अर्थ

हम देखते सुनते आये हैं की हर एक प्रेम कहानी किसी फिल्म या गीत से समानता रखती है। परदे की कहानी के नायक नायिका वास्तविक कहानी के नायक नायिका को देखकर सोचते होंगे की हमारे डायरेक्टर को इन की कहानी से ही आइडिया मिला है। ये तो हुबहू वही घटनाएँ हैं जो हमने परदे पर जीवंत है। वही संवेदनाएं हैं जो केमरे के सामने प्रदर्शित की है।

एक निराला दिन आज भी मेरी यादों के उपवन को महका रहा है। उस दिन की यादें मेरे दिलो-दिमाग को एसे महकाती है। जैसे चन्दन की खुशबु वातावरण को महकाती है। उस दिन मैं मित्र-वृन्द के साथ मूवी देखने गई थी। उस मूवी को शहर के प्रतिष्ठित रेडियो जोकी ने चार सितारे दिए थे। शहर के नए मोल में स्थित मल्टीप्लेक्ष में प्रदर्शित वो मूवी उन दिनों चर्चाओं का केंद्र थी। मोल पहुंचे तो पता चला मोल की सातवीं मंजिल पर है। लिफ्ट में जाना पड़ेगा। औ....र मेरे तिरपन कांपने लगे।
सच पूछो तो कहानी वहीँ से शुरू हुई थी।
मुझे लिफ्ट से बहुत डर लगता है। उस दिन भी यही हुआ। मुज पर डर के काले बादल मंडराने लगे। मैंने अपरोक्ष रूप से एकाध बार दबे स्वर में सरकती सीड़ियों [एस्केलेटर यार] से चलने का प्रस्ताव रखा। हालांकि मैं खुद भी जानती थी मेरा प्रस्ताव कमजोर है। प्रस्ताव रखते वक्त मुझे पता न था। मालिकों के 'बिजली बचाओ' अभियान के कारण एस्केलेटर्स बंद है। वर्ना मैं प्रस्ताव ही न रखती। सीडियां चड़ना पैरों का दम निकालनेवाली प्रक्रिया थी। पर मेरे पास लिफ्ट द्वारा जाने के लिए हाँ कहने के आलावा कोई चारा न था।
मेरे मित्र मेरे मन में चल रहे विचारों से अन्जान थे। लिफ्ट के दरवाजे बंद होते ही मेरे मन में डर का एवरेस्ट बनना शुरू हो जाता है। भय के महासागर में सुनामी उठनी शुरू हो जाती है। लिफ्ट के दरवाजे सक्करपारों की डिजाइनवाले हों तो; बाहर की दुनिया थोड़ी बहुत ही सही पर दिखती है। हवा का आवागमन सरलता से होता है।
नई तरह के दरवाजे बाहर की दुनिया से आँखों का संपर्क 'कम्युनिस्टों' की तरह काट देते है। वे मुझे बहुत डराते हैं। हाँ डर ने एक अच्छा काम किया है। मुझे बंद लिफ्ट के दरवाजे खोलने की कला में माहिर बना दिया है। दरवाजे बंद होने के बाद अगले 'पड़ाव' तक पहुँचने तक लिफ्ट में लगा आईना देखने की आदत मुज में घर कर गई है। उस दिनवाली लिफ्ट में दाईं ओर रुपहले रंग का स्विचबोर्ड था। कोमल बदन जैसा सोफ्ट-टच स्विचबोर्ड। मनचाही मंजिल पाने के लिए पुश बटन दबाइए; मंजिल ओर गति शुरू कीजिये। सरकते कमरे के कार्यान्वित होने के बाद स्विचबोर्ड के ऊपर लगा सुचना पटल [अरे, इंडिकेटर भाई] पर आनेवाली या आ चुकीं मंजिलों को देखना मुझे बहुत बोर भी करता है और परेशान भी। जैसे ही लिफ्ट ने 'यात्रा' शुरू की। मैं मन में हनुमान चालीसा का पाठ करने लगी।

मगर...............अरे रे रे रे रे रे रे ये क्या हुआ? लिफ्ट ऊपर जाने की बजाय नीचे क्यों जाने लगी? ग्रे रंग का यूनीफार्म पहने लिफ्ट-मेन से पूछा तो मालूम हुआ। पार्किंग फ्लोर से भी यात्रियों को लेना था। मैंने एक लम्बी आह भरी। मेरी यात्रा सात से आठ मंजिल की हो गई थी। चंद सेकंडो या मिनिटों की त्रासदी बढ़ गई थी। लिफ्ट-मेन ने पार्किंग फ्लोर से भेड़-बकरियों की तरह यात्रियों को लिफ्ट में ठूँसा। मुझे लगा कहीं वो पागल तो नहीं हो गया है।

सबसे पहले प्रवेश करनेवालों को सब से पीछे धकेल दिया गया था। भीड़ ने मेरे डर को और बढ़ा दिया। यूँ समझिये " गिरते को लात लगी"। लाख कोशिशें कर के भी विचारों को नकारात्मक होने से न रोक सकी। मन पर नकारात्मक विचारों की विजय-यात्रा कूच करने लगी। क्या हो गर बिजली चली जाये? लिफ्ट बिगड़ जाये? दो मंजिलों के बीच अटक जाये? एन वक्त पर सिक्योरिटी एलार्म नाकाम हो जाये? जनरेटर्स सही ढंग से कार्यान्वित होंगे? लिफ्ट बंद होने के बाद बाहर निकलने तक का समय कैसे बितेगा? लिफ्ट में इतने सारे लोग हैं कहीं साँस लेने में तकलीफ हुई तो?

ललाट पर पसीने की बूंदे छलकने लगी। चंद ही मिनिटों में वे नदी बनकर बहने लगी। छत में लगा पंखा अपना कर्तव्य निभा रहा था। लगा मुझे चक्कर आ रहे हैं। पंखा नहीं बल्कि मेरे दिलो-दिमाग घूम रहे हैं। लिफ्ट में बाईं ओर फ्रेम में कैद कागज पर लिखी सूचनाएं एवं आपातकालीन टेलीफोन नंबर दिमाग में 'फीड' करने लगी। क्या पता कब इन नंबरों पर फोन करना पड़ जाये? हाथ बेहद चुस्त जींस की जेब में चले गए। जेब में रखे आज-कल की लड़कियों जैसे स्लिम ट्रिम मोबाईल को मजबूती से थाम लिया। आपात समय में वही संकट-मोचन बननेवाला था। अपनी दूरदर्शिता पर यानि मोबाईल की बैटरी फुल चार्ज कर के घर से निकलने के निर्णय पर गर्व हुआ।

आह! इतनी देर क्यों लग रही है? पल पल भरी लगने लगा। लगा शायद सूर्य की गति धीमी हो गई है। इसी वजह से समय-चक्र धीमे चल रहा है। सातवीं मंजिल पर ही तो जाना था। अब तक मंजिल आई क्यों नहीं? साँस अटकने लगी। मैं डर के काल्पनिक वन में बेतहाशा भटक रही थी। इस दौरान पता ही न चला की मैं विचारों से पीछा छुड़ाने की गरज से से कब 'उस' के पास खिसक गई। उस की मजबूत भुजाओं पर अपना सर रख रख दिया। मेरे लम्बे तीखे नाख़ून उस की भुजा में गहरे तक 'घुसपैठ' कर गए। वो भारत की तरह चुपचाप घुसपैठियों को सहता रहा। मेरे बालों में स्नेह से भरपूर हाथ फिराता रहा। चंद मिनिटों बाद वो धीरे से मुझे सांत्वना देते हुए बोला " मैं हूँ ना, तुम्हारे साथ। परेशानियों को इस तरह अपने आप पर हावी मत होने दो। मैं तुम्हें कुछ..... नहीं होने दूंगा। दो-चार लम्बी व गहरी सांसे लो। सबकुछ ठीक हो जायेगा। मुज पर विश्वास है ना?"

पता नहीं क्या जादू था उस के शब्दों में। भीतर का सारा कोलाहल स्विच से ऑफ़ होते बल्ब की तरह 'बुझ' गया। विचार स्थगित हो गए। दिलो-दिमाग तनावमुक्त हो गए। औ....र मंजिल आ गई।
फिर संयोग भी अदभुत घटा। मूवी की नायिका भी बिलकुल मेरे जैसी समस्याओं में घिर गई। उस द्रश्य को देखकर मैं पानी पानी हो गई। जिस पल मैं पानी पानी हो रही थी। उसी पल उस ने मुझे देखा। हम दोनों की नजरें मिली। वो प्रेमपूर्ण अंदाज में हँस पड़ा। उस के हास्य ने मेरे भीतर हलचल मचा दी। एक पल के सौंवे हिस्से में मेरी दुनिया बदल गई। मुज में 'मैं' लुप्त हो रहा था। 'हम' आकर ले रहा था। साहित्य की भाषा में कहूँ तो 'मैं किसी पुराने जर्जर ढांचे की तरह इतिहास में गुम हो रहा था। जब की 'हम' नए बन रहे स्थापत्य की तरह इतिहास में प्रवेश कर रहा था। सबकुछ असामान्य लगने लगा था। आसमान का रंग आसमानी नहीं बल्कि गुलाबी दिखने लगा था। तन-मन की बांसुरी पर उस की सांसे टकरा रही थी। तन-मन से उठ रहा संगीत मेरे अस्तित्व को सुरीला कर रहा था।
मन सर र र र र र करता फिसल गया।
उस के ह्रदयद्वार पर दस्तक देने लगा।
धक् धक् धक् धक् धक् धक् धक्........
संवेदनाएं मासूम बच्चे की तरह उछलने लगी।
चंद पलों बाद.......
कुर्सी के वेल्वेट से सजे हत्थे पर बेफिक्री से रखे मेरे हाथ पर उस ने अनजाने से हाथ रखा तो हाथ वापस खिंच गया। दिल जोर से धड़क गया। हालाँकि उस की हरकत अच्छी लगी थी। दिल...उफ़... कमबख्त ये दिल हर बार जोर जोर से धड़ककर बेकाबू हो जाता है। पर लज्जा भी कोई चीज है! जब की मन सोच रहा था स्पर्शानुभव फिर से कैसे मिले? मन खुद को उलाहना भी दे रहा था। जब हत्थे पर 'पाणिग्रहण' का सुख मिल रहा था तो खोया क्यों? मन मस्तिष्क को कह रहा था तुने हाथ को वापसी का आदेश क्यों दिया? नजर एक बार फिर हत्थे पर गई तो देखा हाथ नहीं था। मन में एक आस बाँधकर मैंने अपने हाथ फिर वहां रख दिया।
परदे पर चल रहे चलचित्र से ध्यान पूरी तरह हट चुका था। परदे के सामने नई कहानी जन्म ले रही थी। ये सब क्या? क्यों? समज से बाहर था। उस वक्त एक ही ध्येय था। अर्जुन-लक्ष्य की तरह् उस का स्पर्श। मैं मीठी समस्या के हल के बारे में सोच रही थी की लक्ष्य प्राप्ति हो गई। मन मयूर झूम उठा। लक्ष्य प्राप्ति की सुखद अनुभूति में खोने लगी। अचानक उस के शब्दों ने कर्ण-प्रवेश किया। शब्द थे "आओ बाहर चलते हैं। कोफ़ी या पोपकोर्न लेकर आते हैं। एक बोरिंग गीत आनेवाला है।" उस ने स्वाभाविक बात कही थी। मेरे दिल में पनप रहे भावों ने 'मनचाहा' अर्थ निकाला। कुछ सोच के मन ही मन शरमाई, हँसी भी सही। सोचा 'प्रणय-आग' उस तरफ भी लगी है। पूरा चलचित्र घटनाओं का मनचाहा अर्थ निकालते हुए देखकर भी नहीं देखा।
चलचित्र पूरा होने पर बाहर निकले। संध्या अस्त होने की तैयारी में थी। निशा का उदय हो चुका था।
एक अकेली लड़की और रात का समय..
परिस्थिति भारतीय समज की सोच के विपरीत थी। उस ने प्रस्ताव रखा "चलिए, आप को घर छोड़ दूँ। मैं चमकी। प्रश्न उभरा "क्या जान बूझकर दिया गया न्यौता है? ताकि कुछ और पल मेरे साथ बिता सके? दूसरा 'चिंतन भी उभरा " या मेरा ही मन बन्दर की तरह उछलकूद कर रहा है? मनचाहे अर्थ निकाल रहा है?
मगर........

मनचाहे पल मुझे भी तो चाहिए थे। मैं क्यों इंकार करूँ? लक्ष्मी के आने पर मुंह धोने जाना कहाँ की समजदारी है? ये सब मैं तब सोच रही थी जब की मैं गौर कर चुकी थी। प्रस्ताव रखने के बाद उस ने मित्रों की ओर 'विजयी मुस्कान' उछाली थी। मगर, मनचाहा साथ पाने की तमन्ना इतनी तीव्र थी की अर्थ-घटनों की गहराई में जाना उचित न लगा। मनचाहा साथ मिल रहा था सो पाने की दिशा में आगे बढ़ गई।
गुजराती कहानी 'मनगमतुं' का अनुवाद
मूल लेखिका > स्नेहा पटेल "अक्षितारक"
अनुवादक > महेश सोनी